पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 1 Abhilekh Dwivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 1

पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - जूल्स वर्न

चैप्टर १

मेरे मौसा जी बड़े खोजकर्ता हैं

पीछे मुड़कर जब देखता हूँ अपने उस रोमांचित दिन को तो विश्वास ही नहीं होता कि मेरे साथ सच में वैसा कुछ हुआ था। वो इतना विस्मयी था कि उनके बारे में सोचकर मैं आज भी रोमांचित हो जाता हूँ।

मेरे मौसा जी जर्मन थे और मौसी इंग्लैंड से थी। चूँकि मेरे पिता नहीं थे और मौसा जी का मैं लाडला था इसलिए उन्होंने मुझे पढ़ाने के लिए अपने पास बुला लिया था। उनका घर एक बड़े से शहर में था जहाँ वो दर्शन, रसायन, भूगोल, खनिज और अन्य वैज्ञानिक शास्त्रों के प्रोफ़ेसर थे।

एक दिन जब मौसा जी प्रयोगशाला में नहीं थे, मैंने कुछ घण्टे वहीं व्यतीत किये लेकिन फिर मुझे लगा अब अपनी भूख का भी कुछ इंतजाम करना चाहिए। अभी मैं अपने बूढ़ी फ़्रांसिसी बावर्ची को जगाने के बारे में सोच ही रहा था कि मेरे मौसा जी, प्रोफ़ेसर वॉन हार्डविग, मुख्य द्वार खोलकर जल्दी-जल्दी ऊपर आने लगे।

वैसे मेरे मौसा जी, प्रोफ़ेसर वॉन हार्डविग बुरे नहीं हैं लेकिन थोड़े से चिड़चिड़े और सख्त ज़रूर हैं। उनको सामना करना मतलब बहुत अदब से पेश आना। और जितनी आवाज़ उनके चलने की आहट में थी उससे भी ज़्यादा ज़ोर से उन्होंने मुझे अपनी सेवा में बुलाया।

"हैरी? हैरी! हैरी।"

मैं उनकी सेवा में तुरंत हाज़िर होने के लिए सीढ़ियों को फलाँगकर उनके कमरे तक पहुँच ही रहा था कि उन्होंने अपना दायाँ पैर वहाँ रखते ही सवाल किया।

"हैरी। तुम आ रहे हो?"

अब सही बताऊँ तो उस समय मुझे इस सवाल में ज़्यादा दिलचस्पी थी कि आज रात के खाने में क्या बनना चाहिए, ना कि कोई वैज्ञानिक समस्या में। मेरे लिए इस वक़्त सोडा से ज़्यादा सूप, गणित से ज़्यादा ऑमलेट और किसी अदह की जगह चकुंदर का स्वाद लेना, ज़्यादा मायने रखता था।

लेकिन मौसाजी ऐसे नहीं थे कि उनको ज़्यादा इंतज़ार करवाया जाए इसलिए सभी सवालों को दरकिनार कर मैं उनके सामने हाज़िर हो गया।

 

वो बहुत ज्ञानी थे। उनके समकक्ष जो होते हैं वो अपने ज्ञान का प्रसार दूसरों के भले और लोक कल्याण के लिए करते हैं, मेरे बेमिसाल मौसाजी ऐसे नहीं थे। उन्होंने जो भी पढ़ा, देर रात तक दिए में तेल जलाये, मोटी किताबों में खुद को डुबोया, कई पत्र-पत्रिकाओं को पचाया, वो सब उन्होंने अपने तक ही सीमित रखा।

इसके पीछे एक कारण था जिसे अच्छा ही कहा जा सकता था कि क्यों मेरे मौसाजी अपने ज्ञान को प्रसार करने की कभी ज़रूरत नहीं समझते थे। क्योंकि वो तुतलाते थे। और वो आकाश में घटने वाली बातें या चाँद-सूरज से जुड़ी बातें भी इस तरह बताते कि किसी को कुछ समझ ही नहीं आता। सच में बताऊँ तो जब उनको सही शब्द नहीं मिलता तो भारी-भरकम विशेषण जोड़ देते थे।

अब विज्ञान से सम्बंधित कई ऐसे नाम हैं जिनका उच्चारण आसान नहीं, ऐसे नाम जो वेल्श के किसी गाँव के नाम जैसा हो, मौसा जी ऐसे नाम लेकर बहुत गर्वित होते थे जबकि उनका तुतलाना नहीं सुधरा था। ऐसा कई बार हुआ जब उनको अपनी ही कमियों और हार को छुपाने के लिए पानी गटकने का बहाना करना पड़ा।

जैसा कि मैंने कहा, मेरे मौसाजी वॉन हार्डविग बहुत ज्ञानी थे साथ ही बहुत ही दयालु रिश्तेदार भी थे। दुलार और दिलचस्पी की वजह से मेरा उनसे जुड़ाव भी दोहरा था। वो जो भी करते मैं उसमें दिलचस्पी लेता और उम्मीद करता कि एक दिन मैं भी इतना ज्ञान हासिल कर पाऊँ। उनके वक्तव्यों पर ध्यान ना देना, शायद ही कभी हुआ हो। तमाम विज्ञान शास्त्रों में, उन्हीं की तरह मैंने भी खनिज शास्त्र को चुना। मुझमें पृथ्वी के असली ज्ञान के लिए बेचैनी थी। भूविज्ञान और खनिज शास्त्र हमारे लिए जीवन का उद्देश्य थे जिन्हें पढ़ने के दौरान हमने कई पत्थर, चूना और धातू के वास्तविक नमूनों को हथोड़े से तोड़ा था।

भोजन से ज़्यादा तो हमारे सामने स्टील-रॉड, शीशे की पाइप, चुम्बक, और कई सारे एसिड के बोतल होते थे। मौसाजी को इस बारे में प्रसिद्धि मिल चुकी थी कि उन्होंने भार, मजबूती, गलन, ध्वनि, स्वाद और गंध के आधार पर भूविज्ञान से जुड़े ६०० से भी ज़्यादा नमूनों की श्रेणी बनायी है।

अपने समय के वो सभी ज्ञानी, महान और वैज्ञानिक जन से संपर्क करते थे। और इस वजह से हम्फ्री डेवी, कप्तान फ्रेंक्लिन और कई महान व्यक्तित्व के साथ हुए उनके पत्राचार की मुझे खबर थी।

लेकिन इससे पहले मैं ये बताऊँ कि उन्होंने मुझे क्यों बुलाया था, उससे पहले मैं उनके रंग-रूप के बारे में बता दूँ। हालाँकि भविष्य में मेरे पाठक उनका अलग ही चित्र देखेंगे, वो भी तब; जब वो इस होने वाले सम्बंधित साहसिक कार्य से गुज़र चुके होंगे।

मौसाजी ५० साल के बूढ़े, लम्बे, पतले और ढीले-लचीले दिखते थे। बड़ी ऐनक वाले चश्मे के पीछे उनकी आँखें मूंदी दिखती और उनकी नाक एक वस्तु जितनी पतली थी और ऐसी कि दिशा बताती थी।

सच में कहा जाए तो उनकी नाक किसी सिगरेट से काम नहीं थी।

दूसरी अजीब चीज़ थी, वो एक कदम एक गज के बराबर रखते थे, मुट्ठी ऐसे भींचे रहते जैसे अभी मार देंगे और अपने खुशनुमा माहौल से जुदा, कहीं और खुश रहते।

ये भी गौर करने लायक बात है कि वो हैम्बर्ग के कोनैस्ट्रास की बेमिसाल सड़क पर एक बेमिसाल घर में रहते थे। हालाँकि नगर के बीच होते हुए भी वो ग्राम्य दिखता था। आधी लकड़ी, आधे ईंट से बना वो पुराने ज़माने का घर, सन १८४२ की आगज़नी में बचे हुए मकानों में से एक था।

जब मैं कहता हूँ बेमिसाल घर, मेरा मतलब है एक आलिशान मकान - पुराना, ढुलमुल, इंग्लैंड की धारणा के विपरीत, सामान्य सीध से इतर, बगल वाले तालाब की तरफ झुका, किसी भटके कलाकार को दर्शाता जहाँ दरवाज़े से भी ज़्यादा ऊँचे पेड़ों की वजह से शायद ही कुछ दिखे।

मौसाजी अमीर थे, अपना मकान था जिसमें उनका अपना निजी कमरा था। मेरी समझ के हिसाब से उनकी सबसे बेहतरीन संपत्ति उनकी दैविक पुत्री, ग्रेचेन थी। और वो बूढ़ी बावर्ची, जवान ग्रेचेन, प्रोफ़ेसर और मैं वहाँ के इकलौते निवासी थे।

मुझे खनिज शास्त्र और भूविज्ञान से प्यार था। मेरे लिए कुछ भी कंकड़ जैसा नहीं था और अगर मौसाजी कम गुस्सैल होते तो हम सबसे ज़्यादा सुखी परिवार होते। उनकी अधीरता के बारे में साफ़ तौर पर बताता हूँ कि बैठक में रखे हुए गमले में, पौधों को जल्दी उगाने के लिए भी वो रोज़ सुबह ४ बजे उठकर उनके पत्ते खींचते थे।

मौसाजी का पूरा विवरण देने के बाद मैं आपको अपने साक्षात्कार का एक किस्सा बताता हूँ।

मैं उनके अध्ययन कक्ष में मिलने गया, जो कि एक आदर्श संग्रहालय था जहाँ हर सामान्य जिज्ञासा पर उनकी खोज रूपी जवाब हावी थे। जैसा मैंने खुद को सूचीबद्ध किया हुआ था, सभी मुझसे परिचित थे। और मौसाजी इस बात से बेखबर कि उन्होंने ही मुझे बुलाया होगा, किसी किताब में डूबे हुए थे। वो पुराने संस्करण, लम्बी प्रति, और अनूठे कारनामों के शौकीन थे।

“वाह!” अपने ललाट पर उँगलियाँ फिराते हुए ख़ुशी से चहके।

वो उन ज़र्द पड़े संस्करणों में से थी जो जल्दी किसी दुकान पर नहीं मिलती, मुझे भी उसकी अहमियत पता थी फिर भी कीमती नहीं थी। लेकिन मौसाजी तो उमंग में थे।

वो उसकी जिल्द, अक्षरों की सफाई और उसे खोलकर इतने प्रभावित थे कि दर्जनों बार दोहराया कि ये कितनी पुरानी है।

मेरे हिसाब से तो बिना बात का शोर मचा रहे थे लेकिन ऐसा कहना मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं था। इसके विपरीत मैंने दिलचस्पी दिखाते हुए उसके बारे जानने की इच्छा जाहिर की।

"ये स्नोर टार्लसन का हेम्स-क्रिंगला है!" उन्होंने कहा, "बारहवीं शताब्दी में आइसलैंड का सबसे मशहूर लेखक - ये उन सभी नार्वेजियन राजकुमारों की बातों को सत्यापित करती हैं जिन्होंने आइसलैंड पर राज किया"।

अगला सवाल मेरा उसकी लिखित भाषा से जुड़ा था। मैं हर बार यही चाहता कि जर्मन भाषा में अनुवादित हो। इसपर मेरे मौसाजी भड़क गए और कहा कि अनुवाद के लिए एक पाई नहीं देंगे। वो प्रफुल्लित थे कि उन्हें ये आइसलैंड कि असल लिपि में लिखी हुई मिली है जिसमें उनके हिसाब से बेहतरीन भाषा के साथ आसान व्याकरण और मुहावरों का अद्भुत मेल है।

"जर्मन जितनी आसान है?" मेरे  सवाल में छल था।

मौसाजी ने अपना कंधा उचका दिया।

"हर बार, पत्रों को समझना आसान नहीं होता।" मैंने कहा।

"ये रूनिक पाण्डुलिपि में है, आइसलैंड के असली निवासियों की भाषा जिसे ओडिन ने खुद खोजा था"। मौसाजी ने मेरी अज्ञानता पर खीजते हुए कहा।

अभी मैं सोच ही रहा था कुछ मसखरी करने को तभी एक चर्मपत्र का टुकड़ा गिर पड़ा। प्रोफ़ेसर उसपर ऐसे झपटे जैसे कोई भूखा अपने निवाले पर झपटता है। वो पाँच इंच लम्बी और तीन इंच चौड़ी थी जिसपर लिखावट भी घिसे हुए अंदाज़ में था।

किताब में अंकित लिपि उस चर्मपत्र की लिपि से मिलती थी और ये मेरे मौसाजी को रोमांचित करने के लिए काफी था।

मौसाजी ने उन्हें कुछ देर तक गौर से देखने के बाद पुष्टि की कि ये रूनिक ही है। उसके अक्षर किताब से मेल खाते थे, लेकिन उनका मलतब क्या था? और यही मैं भी जानना चाह रहा था।

मैंने तो मान लिया था कि ये रूनिक भाषा और वर्णमाला की खोज ही हुई है इंसानी प्रकृति को रहस्य बनाये रखने के लिए। मुझे इस बात की खुशी हुई कि मौसाजी भी इसके बारे में उतना ही जानते थे जितना मैं - कुछ भी नहीं। हर बार उनकी काँपती उँगलियाँ मुझे ऐसा सोचने पर मजबूर कर देती थी।

"फिर भी" उन्होने खुद से बुदबुदाया "ये प्राचीन आइसलैंड की है, मुझे यकीन है।"

और बहुभाषी शब्दकोष की मान्यता मौसाजी को पहले से प्राप्त थी। वो कभी किसी प्रतापी तरह विश्व में कहीं बोले जाने वाली दो हज़ार भाषाओं और चार हज़ार मुहावरों का प्रयोग कर के अपने ज्ञान को नहीं दर्शाते थे लेकिन जो ज़रूरी था उसे उनका ज्ञान रहता था।

मुझे सबसे ज़्यादा संदेह इस बात पर हो रहा था कि मौसाजी ने ऐसा कौन सा आक्रामक प्रचंड कदम उठाया कि समय नहीं बीत रहा था और बावर्ची को आकर बताना पड़ा कि भोजन तैयार है।

"चलो भोजन करें"। मौसाजी ने चिल्लाते हुए कहा।

मैं तो भूखा था इसलिए छलांग मारते हुए भोजन कक्ष में पहुँचते ही अपने हिस्से के साथ था। सम्मान हेतु मैंने तीन मिनट तक प्रोफ़ेसर यानी मौसाजी का इंतज़ार किया, लेकिन वो नहीं आये। मुझे आश्चर्य हुआ। वो बेहतरीन भोजन को नजरंदाज नहीं करते थे। वो उच्च कोटि के जर्मन विलासिता से परिपूर्ण था - खुरासानी अजवाइन का सूप, तले हुए सुअर के मांस पर बारीक कटी वनस्पतियाँ, आलूबुखारे के साथ सीप में दम किया हुआ बछड़े का मांस, स्वादिष्ट फल,  चमकदार शराब। उस सड़े, पुराने चर्मपत्र पर लोटने के लिए मौसाजी ने अपने भोजन को भी मेरे हिस्से में दे दिया। अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करने के लिए, मैंने दोनों को भोग लगाया।

बूढ़ी बावर्ची और चौकीदार अपना आपा खो चुके थे। इतनी मेहनत के बाद मालिक को नदारद देख वो दुखी थे और मेरी खुराक से तो वो पहले से ही भयभीत थे। अगर मौसाजी वाक़ई आ गये तो?

जैसे ही मैंने आखरी सेव खाने के बाद शराब की आखरी घूँट पी, दूर से एक कड़क आवाज़ आयी। मौसाजी मुझे दहाड़ मारकर पुकार रहे थे। उनकी आवाज़ इतनी तेज़ थी कि मैंने लगभग एक छलांग दी।